जब कभी अँधेरे में रौशनी की ज़रुरत परती है, तो मैं आँखे बंध कर उसे सोच लेती हु। उसकी धुंदली सी तस्वीर मुझे सोचने की उत्साह देती है। शायद वो मेरी ज़रूरतों से वाकिफ़ नहीं , मगर मेरी हर नज़्मों को ज़रुरत उसी की होती है।

मैं तो कभी थी ही नहीं तेरे बग़ैर
वो महज़ सिर्फ एक शरीर था, बिना किसी रूह के, बेजान सा
आत्मा मेरी हमेशा से तुझी में बसी थी

ये मोड़ भी जाने कैसा है
सिर्फ तुम्हारे खतों की महक को महसूस करने की आरज़ू है
न के तुम्हारे साथ होने की तमन्ना

कुछ मांगो तो सिर्फ इंकार ही मिलता है, इसलिए अब मैंने हासिल करना सीख लिया।

बड़े उलझे होते है वो लोग, जो अपनी ज़ख्म नहीं दिखा पाते,
या तो उन्हें डर है उन ज़ख्मो को कुरेदे जाने का,
या फिर फ़िक्र है — कोई उनपर मरहम लेप के फिर छोड़ न जाये।